रिपोर्ट-कुुलदीप राणा आजाद
रूद्रप्रयाग। 16-17 जून 2013 का दिन उत्तराखंड के इतिहास में एक ऐसी तारीख के रूप में दर्ज हो चुकी है जो कि आगे कई सौ सालों तक अलग-अलग परिपेक्ष में याद किया जायेगा। 2013 की केदारनाथ आपदा को 16-17 जून को 11 वर्ष पूर्ण हो जायेंगे। लेकिन करीब एक दशक से अधिक समय में हम हिमालय से आई इस त्रासदी के मायनों को कितना समझ पाये, कितना उस पर अमल किया, यह समय उसी पर चिंतन करने का है। लेकिन वर्तमान हालातों से यह प्रतीत हो रहा कि हम उस आपदा को पुराना जख्म समझकर भूल गए हैं।
गाँधी सरोवर (चैरावाड़ी ताल) से आई भीषण प्रलयकारी बाढ़ की विभिषीका देखिए कि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 44 सौ से अधिक लोग केदारनाथ धाम और उसके निचले इलाकों में मारे गए। 991 लोग अलग-अलग इलाकों में मारे गए। जबकि आपदा के बाद 55 नर कंकाल सर्च आॅपरेशन में मिले थे। 11 हजार से अधिक मवेशियां इस आपदा की भेंट चढ़ी थी, वहीं 30 हजार लोग पुलिस टीमों ने तो 90 हजार पैरामिलिट्रिली फोर्स ने बचाये थे। 2141 मकानें पूरी तरह नेस्तनाबूत हो गई थी तो 100 से अधिक होटल पूरी तरह नष्ट हो गए थे। 2385 सड़कों को बुरी तरह नुकसान हुआ था वहीं 85 मोटर पुल व 172 छोड़े बड़े पुल बह गए थे। 9 राष्ट्रीय और 35 स्टेट हाईवे क्षतिग्रस्त हुए थे, जिससे 35 सौ से अधिक गांवों का सम्पर्क मुख्य धारा से कट गया था।
ये तमाम आंकड़े सरकारी हैं किन्तु इस आपदा के प्रत्यक्षदर्शी आज भी मानते हैं कि केदारनाथ और रामबाड़ा में मरने वालों की संख्या सरकारी आँकड़ों से कई ज्यादा थी। यह आपदा सदी की सबसे भीषणतम आपदाओं में मानी जा रही है।
वर्ष 2013 की आपदा के बाद उस आपदा के कारणों पर खूब चर्चायें हुई, खूब शोध हुए, चिंतन मंथन हुए और न जाने कितनी ही टीमें केदारनाथ और उसके पीछे चैरावाड़ी ताल का अध्ययन करने पहुँची। ग्लेश्यिरों के खिसकने, और गाँधी सरोवर चैरावाड़ी ताल के टूटने(फूटने) अथवा ओवर फॅलो होने के कारणों पर खूब रिपोर्ट तैयार हुई। सरकारों को सौंपी गई। अमूमन हर रिपोर्ट एक ही निष्कर्ष पर आके रूक रही थी कि इस आपदा के असल कारण हिमालयी क्षेत्रों में अत्याधिक मानवीय गतिविधियों व हस्तक्षेपों के साथ-साथ प्रकृति का निरंतर दोहन ही मूल कारण है। पहाड़ में विकास की अंधी दौड़ से पेड़ों के कटान और पैसा कमाने की भूख हिमालय तक पहुँच चुकी है जिसे हिमालय जैसा अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र सहन नहीं कर पा रहा है और उसी का परिणाम 16-17 जून 2013 की त्रासदी है।
लेकिन दुर्भाग्य देखिए इन तमाम रिपोर्ट, अध्ययनों को दरकिनार कर सरकारों ने केदारनाथ की ब्रांडिंग करना आरम्भ कर दिया और तीर्थ के नाम पर पर्यटकों का मजमा यहां लगा दिया। यह हम मानते हैं कि आपदा के बाद छिन्न भिन्न हुई केदारपुरी को सँवारना नितांत आवश्यक था। वहाँ उचित रहने की व्यवस्थायें, केदारपुरी की सुरक्षा और आपदा से कंकरीट के ढेर में तब्दील केदारपुरी को एक नया स्वरूप देना ताकि केदारनाथ जाकर आपदा की यादें ताजी ना हो और उससे कोई भयभीत ना हो इसे ठीक करना समय की मांग थी। लेकिन सब कार्य प्रकृति के अनकूल हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए था। प्राकृतिक संसाधनों और वहाँ की जलवायु के अनुसार वहां का विकास होना था किन्तु सरकारों ने जिस बेशर्मी के साथ मास्टर प्लान के नाम पर पिछले 11 वर्षों में केदारनाथ धाम में ध्वनि प्रदूषण से लेकर वायु प्रदूषण और आध्ुनिक मशीनरी से वर्षभर इस संवेदनशील क्षेत्र मंे कार्य किया जा रहा है निश्चित ही यह नई आपदा को दस्तक दे रहा है। जबकि दूसरी तरफ केदारनाथ को दिल्ली मुम्बई जैसा शहर बनाना और वहां भौतिक सुख सुविधाओं के नाम पर हिमालय के अस्तित्व को ही संकट में डाला जा रहा है। आज केदारनाथ धाम में बड़ी-बड़ी जेसीबी और पौकलैण्ड मशीन से लेकर बड़े-बड़े डम्फर, ट्रक और थार कार तक धडल्ले से हिमालय की आबोहवा को प्रदूषित कर रही है। जबकि महाराष्ट्र गुजरात और अन्य प्रदेशों से आये अनेक तीर्थ यात्रियों के समूह केदारनाथ की परम्पराओं के विपरीत कानफोडू वा़द्य यंत्रों का उपयोग कर ध्वनि तरंगों से ग्लेश्यिरों के खिसकने का भय हर समय बना है। केदारनाथ और उसके बुग्यालों में बेतहाशा प्लास्टिक कचरा यहां के बुग्यालों को नष्ट भ्रष्ट कर रहा है तो ऐसा लग रहा है हम उस भीषण आपदा को भूल गए हैं और उस आपदा को भूलना ही हमारी सबसे बड़ी भूल लग रही है। स्थानीय हक-हकूकधारियों से लेकर सरकारों को गम्भीर होना पड़ेगा।