उत्तराखंड में दो चरणों में मतदान प्रक्रिया संचालित की गई। जिसमें प्रथम चरण का मतदान 24 जुलाई को और दूसरे चरण का मतदान 28 जुलाई को संपन्न हुआ।
ऐसे में कई मतदाताओं ने दोनों ही चरणों में मतदान किया।
उदाहरण के तौर पर 24 जुलाई को प्रथम चरण के दौरान रुद्रप्रयाग में मतदान संपन्न हुआ, लेकिन कई मतदाता ऐसे थे जिनका ऋषिकेश ग्रामीण क्षेत्र में भी नामांकन सूची में नाम दर्ज था और रूद्रप्रयाग ग्रामीण से भी। 24 तारीख को रूद्रप्रयाग मे मतदान करने के बाद उन्होंने 28 जुलाई को ऋषिकेश ग्रामीण क्षेत्र से भी मतदान किया। उंगली पर लगे निशान को नेल पॉलिश रिमूवर की मदद से मिटा दिया गया और दूसरे चरण की मतदान प्रक्रिया में भी भाग लिया।
यह स्थिति केवल ऋषिकेश की ही नहीं बल्कि प्रदेश भर के 12 जनपदों में देखने को मिली।
नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायत में भी अमूमन यही स्थिति रही।
कई प्रत्याशी तो ऐसे निकले जिन्होंने नगर निगम, नगर पालिका या फिर नगर पंचायत में भी चुनाव लड़ा और हारने के बाद गांव की वोटर लिस्ट में भी नाम होने के चलते गांव से भी प्रत्याशी बने। इस मामले को लेकर हाईकोर्ट में भी अपील की गई थी।
ऐसे में राज्य निर्वाचन आयोग की यह बड़ी कमी सामने आई है, जिसका परिणाम रहा की डबल वोटिंग के चलते देहरादून ग्रामीण क्षेत्र में 77% तक रिकॉर्ड मतदान हुआ है। कुमाऊं के जनपदों की भी यही स्थिति है।
निर्वाचन आयोग की इस आधी-अधूरी तैयारी का खामियाजा प्रत्याशियों को भुगतना पड़ेगा। जहां डबल वोटिंग हुई है।
ऐसा नहीं है कि यह स्थिति गढ़वाल या कुमाऊं के क्षेत्र में है।
प्रदेश से बाहरी व्यक्ति जो कि, उत्तराखंड में कार्यरत हैं, उन्होंने तो और भी बुरे हाल मचा रखे हैं।
अगर कोई उत्तराखंड मे कार्यरत व्यक्ति बिहार से है तो उसका बिहार की मतदाता सूची में भी नाम है, और उत्तराखंड के जनपद, जहां कि वह आजीविका चलाता है, उस सूची में भी नाम है। वह प्रदेश से बाहर भी मतदान कर रहा है और उत्तराखंड में भी।
राज्य निर्वाचन आयोग को इस विषय में विशेष रणनीति बनाने की आवश्यकता है, कि इन परिस्थितियों को कैसे रोका जाए। वरना यह स्थिति लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए घातक सिद्ध होगी और खामियाजा प्रत्याशियों को भुगतना पड़ रहा है।