देहरादून। राज्य स्थापना दिवस की रजत जयंती पर प्रदेश भर में सरकारी कार्यक्रम आयोजित किया जा रहे हैं।
बतौर ढोल नगाड़ों से नृत्य मय इस महोत्सव में बाबा केदारनाथ के सच्चे भगत और देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शिरकत की। प्रधानमंत्री ने इस खास अवसर पर करीब 8,260 करोड़ रुपए से अधिक की विकास परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण करते हुए कहा, 25 साल पहले उत्तराखंड सीमित संसाधनों, सीमित बजट और अनगिनत चुनौतियों के साथ बना था।
बहरहाल आज 25 साल बाद यह राज्य आत्मविश्वास से परिपूर्ण है, संभावनाओं से भरा है और यही इसकी असली उपलब्धि है। इस उपलब्धि में विश्वास है और बेहतर भविष्य की आशा का संचार भी।
शहीदों के इन बलिदानों का ही परिणाम था कि 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड भारत का 27वाँ राज्य बना। राज्य बनने के बाद विभिन्न जन संगठनों और आम जनता के दबाव ने उत्तरांचल के नाम को बदलकर “उत्तराखंड” रखवाया, जो हर उत्तराखंडी के गौरव, पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक बन गया। हालांकि नाम बदलवाने में ही करोड़ों रुपए का पेंट साइन बोर्ड पर खर्च किया गया।
25 वर्षों में उत्तराखंड में राजनीतिक अस्थिरता कायम रही और 10 से अधिक मुख्यमंत्री बदल चुके हैं। दलबदल, सत्ता संघर्ष, गठबंधन और अस्थिर सरकारों ने कई बार विकास की गति को बाधित किया। अनेक बार विधानसभा सत्र स्थगित या औपचारिकता बनकर रह गए तथा जनता का असंतोष गहराता गया। आम लोगों की धारणा में यह अब एक स्थायी चिंता बन चुकी है कि चुनावी समय में जो वादे किए जाते हैं, उनके क्रियान्वयन की गति शिथिल रहती है।
आर्थिक विकास: आंकड़े और सच्चाई
उत्तराखंड की GDP 2000 में 14,500 करोड़ रुपये से 2025 में करीब 3.78 लाख करोड़ रुपये तक केवल कागजों में पहुँच गई है और हैरानी की बात है कि प्रति व्यक्ति आय लगभग 2.74 लाख रुपये के करीब है। औद्योगीकरण, पर्यटन, सड़क नेटवर्क, MSME, डिजिटल गवर्नेंस एवं महिलाओं के स्वरोजगार में बड़ी प्रगति दिखती है।
मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझ रहे ग्रामीण
शहरों और मुख्य मार्गों तक सिमट गया है। अधिकतर पहाड़ी गांवों में आज भी सड़क, अस्पताल, पानी, मार्केट जैसी मूलभूत सुविधाएं अधूरी हैं। किसानों को बाजार, बच्चों को अच्छी पढ़ाई, युवाओं को स्थानीय रोजगार और मरीजों को प्राइमरी ट्रीटमेंट के लिए भारी जद्दोजहद करनी पड़ती है।
पलायन : अब भी सबसे बड़ी चुनौती
पलायन उत्तराखंड का सबसे बड़ा सामाजिक और आर्थिक संकट बन चुका है। 1,700 से अधिक गांव आंशिक या पूरी तरह खाली हो चुके हैं और 3 लाख लोग स्थायी रूप से मैदानों की ओर जा चुके हैं। पलायन के प्रमुख कारणों में स्थानीय रोजगार की कमी, कृषि में घाटा, स्वास्थ्य और शिक्षा का अभाव, जंगली जानवरों का डर, और बुनियादी सुविधाओं की खराब स्थिति आती है। यह न केवल सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता है, बल्कि स्थानीय संस्कृति व रीति-रिवाज भी खतरे में डालता है।
बेरोजगारी और युवाओं की व्यथा
युवाओं के लिए उत्तराखंड में बेरोजगारी सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार के अनुसार बेरोजगारी दर लगभग 4.4% है, लेकिन पंजीकृत बेरोजगारों का आंकड़ा 8 लाख से अधिक है। पढ़े-लिखे B.Ed, B.Tech, MA, MBA धारक युवा भी सेना, पुलिस या चतुर्थ श्रेणी की नौकरी पाने के लिए लाइन में लगे हैं। मेट्रोपॉलिटन की ओर पलायन ना सिर्फ़ युवाओं की ऊर्जा, बल्कि राज्य के भविष्य की संभावनाओं को भी कमजोर करता जा रहा है।
पेपर लीक और भर्ती घोटाले
उत्तराखंड की भर्ती परीक्षाओं में पेपर लीक, नकलबाजी और निरस्त प्रक्रियाएं युवाओं के लिए नया मानसिक आघात बनी हैं। UKSSSC, पुलिस, पटवारी, शिक्षक जैसी दर्जनों भर्तियों में पेपर लीक या नकल के मामले सामने आए और कई बार परीक्षा निरस्त हुई। इस वजह से लाखों युवाओं का श्रम, समय और जीवन की आशा बिखर गई। युवा सवाल कर रहे हैं कि क्या ये वही पारदर्शी, ईमानदार व्यवस्था है, जिसका सपना राज्य आंदोलन के शहीदों ने देखा था? हालांकि नकल विरोधी कानून भी उत्तराखंड में अस्तित्व में आया है।
लेकिन उसके बावजूद हाल ही में , पटवारी का पेपर लीक हुआ था। जिसे लेकर युवा फिर आंदोलन के लिए एकत्रित हुए। माननीय मुख्यमंत्री के सीबीआई जांच के आश्वाशन के बाद आंदोलन खत्म हुआ था ।
स्वास्थ्य सुविधाओं की असलियत: पहाड़ के लिए अभी भी सपना
उत्तराखंड के पहाड़ों में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली राज्य की सबसे बड़ी विफलता साबित हुई है। अधिकतर सरकारी अस्पताल रेफरल सेंटर बनकर रह गए हैं, जिनमें डॉक्टरों, तकनीकी उपकरणों, विशेषज्ञों और जीवनरक्षक दवाओं की भारी कमी है। गंभीर मरीजों या गर्भवती महिलाओं को 100 से 200 किमी दूर शहरों में इलाज के लिए भेजना आम हो गया है और कई बार जान जोखिम में पड़ जाती है।
हाल ही में चौखुटिया के ग्रामीणों द्वारा 300 किमी पैदल चलकर राजधानी तक स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आंदोलन करना मजबूरी और बेबसी का सबसे बड़ा प्रमाण है। सरकार की मोबाइल हेल्थ यूनिट, हेली-एंबुलेंस, टेलीमेडिसिन जैसी योजनाएं भी पहाड़ तक पूरी तरह नहीं पहुँच सकीं। इस बदहाली के कारण पूरा परिवार भी गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर है।
गैरसैंण : अधूरी राजधानी और प्रतीकात्मक राजनीति
राज्य आंदोलन के केंद्र में गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग थी। 2020 में इसे औपचारिक रूप से ग्रीष्मकालीन राजधानी का दर्जा तो मिल गया, लेकिन असल सच्चाई है कि आज भी गैरसैंण में साल भर में केवल कुछ ही विधानसभा सत्र होते हैं और शेष प्रशासनिक गतिविधियां देहरादून में केंद्रित हैं। नेता केवल औपचारिकता के लिए गैरसैंण जाते हैं और वहां अधिक ठहरते नहीं। स्थानीय जनता खुद को छला हुआ महसूस करती है और गैरसैंण को केवल “नाम की राजधानी” मानती है।
मूल निवास, भू कानून और अस्मिता का सवाल
उत्तराखंड के पहाड़ी लोगों को नौकरी, भूमि और संसाधनों पर प्राथमिकता देने के लिए मूल निवास कानून और भू संरक्षण कानून की मांग बरसों से हो रही है, लेकिन 25 साल बाद भी यह मुद्दा अधर में है। जमीनें खरीदने और बाहरी लोगों के कब्जे पर ग्रामीणों की नाराजगी लगातार बढ़ रही है। इसके साथ ही, राज्य की भू नीति कमजोर रहने से स्थानीय अस्मिता, संस्कृति, रोजगार और पारिस्थितिकी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
माफियाराज, खनन और भ्रष्टाचार
खनन माफिया, रेत तस्करी, जंगल कटाई एवं जमीन घोटाले ने उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ सरकारी व्यवस्था को भी गहरा आघात दिया है। राजनैतिक-प्रशासनिक मिलीभगत, योजनाओं और ठेकों में खुलेआम भ्रष्टाचार, अफसर-ठेकेदार-राजनीता गठजोड़, हर स्तर पर दिखाई देती है। इससे ग्रामीणों का विश्वास सिस्टम पर कमजोर हुआ और विकास के असली लाभार्थी आम लोग नहीं, बल्कि माफिया और दलाल बन गए।
बहरहाल खुशी मनाइए उत्तराखंड अब 25 साल का हो चुका है।








